नासमझ
नासमझ
सबकुछ बचपन सा तो नहीं रहता हालात, ना जाने कब किसे किस मोड़ पर ले जाएं, हालात बदलने में वक्त तो नहीं लगता । मैंने भी तो उम्र को बदलते बड़ी करीब से देखा हैं। मैंने एक बच्चे की उम्र को खुद मेरी आंखों में क़ैद किया हैं। उसका इठलाना , अपनी बातों को मनवाना , रोना और उन चीजों की मांग करना जो वो खुद नहीं ले सकता हैं । धूल के गुब्बारों में अपने आप को शामिल करना , यहीं तो उसका दौर भी हैं। आखिर इसमें उसकी बादशाहत नहीं तो फिर उसके होने का मुझे तो कोई वजूद नहीं दिखता और हो भी ना क्यूं अभी उसके नियम मैं वही तो राजा हैं। मैं जब- जब उसको देखता हूं , मुझे ना जाने क्यों अपनी इस उम्र पे क्रोध आने लगता हैं । क्योंकि वो जो हैं उसको अभी किसी बात की चिंता नहीं , वह मानो सबसे कहता हो “अहं सर्वो” उसके होने का सिद्धांत भी यहीं हैं। मैं कोशिश तो लाख करता की कैसे इस उम्र के तराने से निपटा जाएं , मैं जब - जब ये सोचता हूं ना जाने क्यों इसी मैं और उलझ जाता हुं । खैर मेरी उम्र तो पीछे मुड़ के जा नहीं सकती लेकिन लोग चाहे तो वो मुझे , मान ले की इसकी जो उम्र वास्तव में उन्हें दिख रहीं ये हैं नहीं। बल्कि इसके सर पे इसका बचपना हैं, बस एक यहीं रास्ता जो मेरी सारी समस्यों का हल हैं। लेकिन खैर कौन मुझे मेरे उस दौर के जैसा जाने । लोग अब तो बस मेरी कमियों को ढूंढते हैं । ये लोग कहां मेरी विरह को समझे , इन ने तो सदैव ही मेरी कमियों का गुणगान किया हैं। जो शायद मेरे विचारो को अपना शत्रु मानते हैं। और जो शत्रु भाव रख ले उस से प्रेम की आस तो भगवान को नहीं फिर भी मैं तो इंसान हुं । मैंने तो सदैव ही उन बातों को नकारा जो किसी का अपमान करे , मैं तो मैं ही हूं फिर । मैं तो उन लोगों को हमेशा याद रखता हुं जो मेरे विरोध में अपना मत रखते हैं । चलो इस बात की पुष्टि तो मुझे हैं , कि मैं अपने विचारों को बयां करने में सक्षम हूं । और ये लोग मेरे विचारों को अपने मतों में लाने का कहते हैं , मगर फिर मैं तो मैं ही हूं जो अपने आप को सत्य की राह का राही मानता हूं । और जब मैं खुद को सही मान लूं तो फिर मुझे किसी और से क्या उपेक्षा। फिर मैं अपने क्रोध की सीमा को नहीं रोकता जो की बाहर निकलने को आतुर रहती हैं, फिर महादेव का विकराल रूप मैं स्वं धारण कर लेता हुं।
~ आशुतोष दांगी
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