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मैं ना जाने किस दौड़ का हिस्सा बनके रह गया ,

चले थे लोग कई साथ मेरे मगर,

मैं अकेला सफर में रह गया ।।


किस से कहें हाल- ए -दिल , 

कोई सुनता भी नहीं जज्बात को, 

तो फिर मैं अकेला तन्हाई में,

सिर्फ आशुतोष बन कर रह गया ।।


अब मुझसे यूं बात ना करो खुले असमान की ,

मैं पिंजरे में बंद एक द्विज बन कर रह गया ।।

          

                                       ~~ आशुतोष दांगी 

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