अब ना जाने किस दौर में आ उलझा मैं ,
रंजो ग़म के अलावा कुछ भी तो नहीं यहां ।।
इक दौर वो भी था , कयामत के शहर में ,
हर जगह मशहूर मैं था , अब जो पूछ लूं कि क्या हूं मैं ।।
जानते नहीं मुझे,तो कहते हैं,
सबकुछ बदल गया , वो यादें अब धुंधली हैं ।।
जान ने वाले सब चले गएं ,वक्त ने अजीब करवट खाई हैं,
जिन ने वादे किये थे ताउम्र के ,वक्त से पहले ही उन्होंने अपनी मर्जी चलाई हैं।।
खैर छोड़ो ये जानने की बातें, जो तस्वीर यादों में हैं मिटा क्यूं नहीं देते उसे ,
ये सब जो तुम कर रहे हों ये खुदा की रुसवाई हैं ।।
बेहतर ये होगा भूल जाओ उन्हें ,जान ने वाले जान दे गएं,
वो थे तो जानते सब मगर एक बात पर अब गौर करों,
उनके अलावा अब कोई नहीं जानता तुम्हे यहां ।।
~~ आशुतोष दांगी
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