Header Ads



 मंजिलें मिली तमाम लोगों को ,

मैं सफर के इंतजार में बेसुध रहां ।।


पहुंचे वो भी वक्त पर जो मुझसे बाद में घर से निकलें,

मैंने ना जाने किस कदर वक्त गवायां ।।

उम्मीदें तमाम थी खुद से हमकों भी ,

मगर ना जानें कहां ख्वाब टूटे कहां हम ।।


उम्र भी यूं क्यूं बढ़ती हैं,

जरा क्या ठहरे लगने लगा यूं बचपने से बुढ़ापे में आ गुजरे ।।


मैं खुद को तलाशता हूं , 

खुद की तलाश में ,

      ना जाने कहां खोया हैं, 

        वो शख्स हां मैं ही अब खुद 

       से अनजान हूं ।। 

                    ~~ आशुतोष दांगी

कोई टिप्पणी नहीं

Blogger द्वारा संचालित.